Sunday, March 27, 2011

तुम जो गए ....शहर से 
 
तुम जो गए ....शहर से तो  ले गए

हवाओं से

खुशबुओं  भरी 

बातें......

वो  तैरती सी

किश्तियों की 

मुस्कुराती 

आँखे....

और दे गए

खाली  कमरों में

डोलती  

बुझी  बुझी सी 

रोशनी...... 

दीवारों पर

रेंगती

अकेलेपन की 

चुभन.....!

आना तो देखना 

किताबें  चुप 

लगा कर

 बैठ गयीं है

और..... 

ठिठक कर 

रुक  गयी है 

सारी कहानियाँ  ...................











अंतर पीड़ा 

मन मेरा क्यूँ ये

भटक  रहा

स्मृति  का सहारा 

खोज रहा........

है  विकल आज क्यूँ 

ये  इतना 

जो  अश्रु किनारा 

ढूंढ  रहा......

क्या कल्पित पाया 

कुछ  भी नहीं..?

जो शुन्य..शुन्य 

में भटक रहा....... 

हुई  सृजित

मेरे  जीवन पथ पर 

नीरवता  ही नीरवता 

देहरी  के जलते दीप बुझे 

छल गयी मुझे अंतर् पीड़ा   .........

(ये कविता उस समय की  लिखी हुई है जब हम ११वीं क्लास में थे ....ऐसी कुछ पुरानी यादें है ....जो मन से चिपकी हुई है ....आज उन्हें यहाँ लिखकर ....उनसे पीछा छुड़ाना चाहती हूँ ऐसा नहीं कहूँगी.... हाँ बस एक कोशिश है अपने बीते कल को नए ...सिरे से बांधने की ...और कुछ नए अहसासों  से तालमेल बिठाने की .................)